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हरी दूब में टंके सपने / मृदुला सिंह

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जवान होती सांझों में
गांव की मेड़ो से गुजरते
हम टांका करते थे सपने
कभी झरबेरियो पर
कभी कनेर और बेशरम के पत्तों पर
पेड़ पात नदी घाट खेत खलिहान
टूटे छप्पर वाली स्कूल
सब जगह मैंने सबसे छुप कर टांके सपने

मेरे सपनों में सिलवटें नहीं थी
सपाट जमीन का संसार था
धरती के रंग की तरह गाढ़ा
फूलते-फलते महमहाते सपनों को
समेटना चाहा था
लेकिन समेट नहीं पाई थी
जब आना पड़ा था शहर
और बड़े सपनों के लिए
दादी का दिया पोटली से बंधा पाथेय
जूट के झोले में संभाल कर
रख लिया था सबसे ऊपर
आषाढ़ की गरज बरस में
लाल डिब्बे नाम वाली बस में सवार
हम बढ़ गए थे आगे
मन छूट रहा था
गांव की उन्ही मेड़ों पर
जहाँ सपने देखने का
अधिकार मांगना नहीं पड़ता था

अब जब जिंदगी गुजर रही है
कोलतारी रास्ते और कंक्रीटी मकानों से
याद बहुत आते हैं मेरे वे कच्चे सपने
टंके होंगे क्या अब भी
वहाँ किनारे वाली हरी दूब पर
मेरे इंतजार में?