रेल, जनरल डिब्बा और देश / मृदुला सिंह
जनरल डिब्बे में
पहली सीढ़ी पर जगह बनाना है सिर्फ
फिर यात्रियों का सैलाब
खुद ही बहा ले जाता है भीतर तक
यहाँ जगह का मिलना
उतना ही काल्पनिक है
जितना बहुत से गरीबो को
भरपेट खाना मिलना
इन डिब्बों में सफर करती महिलाएँ
पानी की तरह अपनी जगह बना लेती हैं
सीट न सही फर्श तो है
जहाँ बैठ दूध पिलाती हैं बच्चे को
जीवन की तरह
काटती है यात्रा सफर की
जनरल डिब्बों के इन बच्चों के लिए
कोई अजनबी नहीं होता
हैरत भरी आंखों से दूसरों को देखते
इन बच्चों को हंसाने दूसरा यात्री
बच्चों-सी हरकतें करता है
हंसती है हवा तब खिडकियों पर
उतरने लगते हैं इनकी आंखों में
खिड़की पार के खेत और सूखी नदी
ऊँची बिल्डिंग और बाजू की झोपड़ी भी
विचारों में सुख दुख की पटरी
दूर कहीं एक हो रही है
पर होती है वह हमेशा अलग-अलग ही
कोई भी स्टेशन हो
छोटा शहर या महानगर
जनरल डिब्बे का दृश्य एक ही होता है
तारीखें बदलती है
लोग बदलते हैं
पर कभी नहीं बदलता यह दृश्य
रोज देश की आधी दुनिया
इसी तरह अपने छोटे-छोटे सपने बचाती
निकल पड़ती है जिंदगी की जद्दोजहद में
क्योंकि परिवार की जिम्मेदारी
साथ रखी मोटरी में बंधी है
जिसे समेट हर रोज निकलना है
रेल की इन अंतिम बोगियों का सच
देश की आधी दुनिया का सच है