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मन्त्रणा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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सूरज को ढकने हित काली घटा घहर आती है।
किन्तु पवन के प्रबल घात से क्षण में छट जाती है।
जगते ही प्रभाव की लाली निशा पिघल जाती है।
लाल-लाल प्राची कराल तमतोम निगल जाती है।

किन्तु धर्म का मन्द सूर्य अस्ताचल को जब जाता।
तब अधर्म का तिमिर धरा पर उन्नति का सुख पाता।
यद्यपि क्षुद्र क्रान्ति के तारक यत्र-तत्र जलते हैं।
किन्तु तमोदधि मध्य फँसे नाविक से कर मलते हैं।

जब आता संकट कंटक तब पैरों में भी लगते।
बुद्धि विवेक, कर्म, संयम स्वयमेव सभी हैं ठगते।
बुद्धि-भ्रष्ट होकर क्षण भर में सुमति चाट जाती है।
उन्नत होती कुमति, सभी सद्गुण खा हरसाती है।

आज कुमति ने गौतम का निःशेष विवेक किया है।
वेद ज्ञान उसका पलभर में सारा भुला दिया है।
गौतम का सब ज्ञान मात्र पुस्तक से ही अर्जित था।
उसमें कहीं न संस्कारों का श्लाघ्य तत्त्व संचित था।

बिना ज्ञान के पुरूष सदा अन्धा ही कहलाता है।
दृग होते हैं, किन्तु उसे सन्तार्ग न दिखलाता है।
आज उसी वेदज्ञ विप्रवर गौतम गुरु ज्ञानी का।
प्रबल हो गया द्वेष, कपट, छल शास्त्र ज्ञान दानी का।

मणिकुण्डल का दान-मान-सम्मान उसे खलता था।
मणिकुण्डल के यश-वैभव को देख हृदय जलता था।
चिन्तन करने लगा किस तरह धन इसका मैं हर लूँ।
नित्य भोग वैभव का भोगूँ अपने मन की कर लूँ।

मणिकुण्डल को छलने की गौतम ने मन में ठानी।
छल की छुरी सहेजे उर में सुख में मधुरिम बानी।
सभी धर्म-आचरण भूल गौतम पथ भ्रमित हुआ है।
सत्यनिष्ठ मणिकुण्डल को ठगने में मुदित हुआ है।

कहने लगा एक दिन गौतम मणिकुण्डल से आकर।
मित्र! चलो व्यापार करें हम दूर देश में चलकर।
यहाँ इस तरह से अर्जित धन लगता नहीं प्रचुर है।
कमी खल रही सुविधाओं की जीवन कहाँ मधुर है?

मैं ब्राह्यण हूँ किन्तु मुझे सन्तोष नहीं भाता है।
धन अपार हो-भौतिक वैभव, यही भाव आता है।
मणिकुण्डल ने कहा, नहीं धन का प्रलोभ उत्तम है।
धन का शोधक एक मात्र दिनरात कठिनतम श्रम है।

सखे! इसी यौवन में श्रम सब भाँति सहज संभव है।
बिना परिश्रम के न कभी मिल पाता परम विभव हैं।
रात और दिन, ऋतुएँ ये सब जाकर फिर आते हैं।
धार नदी की यौवन के दिन कहाँ लौट पाते हैं?

जब तक तन में शक्ति-सिन्धु-यौवन का घनगर्जन है।
तब तक ही संसार विनत हो करता अभिनन्दन है।
सत्य, धर्म, गुरु-भक्ति, प्रेम ये रत्न अमूल्य सभी हैं।
इनके बिना मनुजता के शृंगार न सजे कभी हैं।

दौड़े नहीं अर्थ के पीछे यही उचित लगता है।
यही अर्थ करता अनर्थ है दाम-दाम ठगता है।
किन्तु सत्य आचरण और परसेवा का जो धन है।
वही वस्तुतः अक्षर निधि है और परम पावन है।

क्षण भंगुर माया की कलिका क्योंकर भटकाती है?
भुला चिरन्तन का चिन्तन कंचन-कंचन गाती है।
मणिकुण्डल का तत्त्व ज्ञान गौतम को रहा अखर था।
रत्न और धन का अविरल स्वर उसके उर-अन्तर था।

होकर वणिक भूमिसुर को उपदेश कर रहे हो तुम।
कितना घोर अनर्थ और अपराध कर रहे हो तुम।
कंचन-कीर्ति' कामिनी से इस भू पर कौन विलग है?
किसके उर में प्रबल कामना यहाँ न रही उमग हैं?

किस यौवन में नहीं स्वर्ण के कमल खिला करते हैं?
किसके मन में नहीं गन्ध के स्वप्न ढला करते हैं?
सोचो तो किस हेतु देह धर कर तुम भू पर आये?
अखिल सृष्टि के मस्तक के अनुपम किरीट कहलाये।

उपदेशों से नहीं धर्म धरती पर चल पायेगा।
धन-दौलत के बिना निराश्रित होकर पछतायेगा।
यह कोरे उपदेश तुम्हारे अन्न वस्त्र क्या जाने?
प्रबल कामना की ज्वालाएँ अरे! धर्म क्या माने?

अग्निकुण्ड तेरे भीतर क्या नहीं धधकता होगा?
उस क्षण तेरा तत्त्व-बोध निज शीश पटकता होगा।
तृषा-तृप्ति तो दोनों ही परमेश्वर की कृतियाँ हैं।
दमन-निषेध घोर अनुचित यह मेरी सम्मतियाँ है।

परमेश्वर का जो विधान है पूर्ण और उत्तम है।
परिवर्तन कर सके रंच भी मानव कब सक्षम हैै?
अरे मित्रगौतम! तुम यह द्विज होकर क्या कहते हो।
छोड़ सत्य की बाँह झूठ की धारा में बहते हो।

साध्य समझते हो जिनको वे साधन क्षण भंगुर हैं।
क्षणभर मिथ्या तृप्ति और फिर पीड़ाओं के पुर हैं।
अरे! धर्म-पथ पर चलने से जन्म-जन्म सुख होता।
सदा कर्म सात्त्विक करने से नहीं मनुज दुख ढ़ोता।

चले धर्म के पथ पर थे श्री हरिश्चन्द नृप दानी।
लुटा दिया सर्वस्व धर्म पर किन्तु न बदली बानी।
चले धर्म के पथ पर राघव मर्यादा परुषोत्तम।
भारतीय संस्कृति के वे आदर्श बन गये अनुपम।

चले धर्म के पथ पर थे श्री यूधिष्ठिर शान्ति सजाये।
और अकेले ही द्वापर के धर्मराज कहलाए।
चले धर्म के पथ पर थे मोरध्वज सुत बलिदानी।
धर्म-वर्म बन गये पूज्य धरती पर नर गुरु ज्ञानी।

शिवि ने अपना मांस दान पर सत्यव्रत को पाला।
सत्य-धर्म पंथ सखे! है अमरत का ज्यों प्याला।
कहो धर्म के पथिकों का किस युग में मान नहीं हैं?
जो न चल सके सत्य पंथ पर वह इन्सान नहीं है।

भोग सका कब मनुज भोग ही उसे भोग लेता है।
हर लेता है ओज-तेज श्री हीन बना देता है।
नहीं समय को मनुज रंचभी सचमुच व्यय कर पाता।
जबकि काल पल-पल मानव को व्यय ही जाता।

सकल चराचर सृष्टि काल के बल से संघर्षित है।
हर पल-हरक्षण समय चक्र से कौन नहीं वंचित है?
एक एक क्षण उस अनन्त में लय होता जाता है।
करो निरर्थक अथवा सार्थक, नहीं लौट आता है।

किन्तु भ्रमित अपना मन गौतम! कितना अज्ञानी है?
राह धर्म की मिली किन्तु इसने कब पहचानी है?
घोर अन्त की पीड़ाओं का पूर्व ज्ञान यदि होता।
डूब आँसुओं की धारा में क्योंकर मानव रोता?

मणिकुण्डल तुमने ऋषियों का कुछ साथ किया है।
किन्तु दीनता पर उनकी क्या तुमने ध्यान दिया है?
यही धर्म उनके दुख दर्दों का असीम कारण है।
भोजन, वस्त्र, निवास आदि की व्यथा असाधारण है।

इसी धर्म की ध्वजा उठाये फिरते मोर-मोर।
दो रोटी के लिए भटकते रहते द्वारे-द्वारे।
क्या वे नहीं चाहते षट्रस अपने साथ रखूँ मैं?
क्या वे नहीं ंचाहते छप्पन व्यजंक नित्य चखूँ मैं?

आखिर क्यों रागिनी विरस जीवन की विवश पड़ी है?
कौन विवशता कठिन पंथ पर रोके उन्हें खड़ी है?
क्या वह भी जीवन है, जिसमें पुष्प नहीं कटंक हैं?
नहीं हास के पर्व जहाँ बस संकट ही संकट हैं।

वह भी क्या जीवन जिसमें यौवन का ज्वार नहीं है?
जगती हुई कामनाओं का मृदु शृंगार नहीं है।
जीवन है जब विकृति, विकृतिमें और विकृति क्याहोगी?
सकल विकृति के बाद एक बस एक प्रकृति ही होगी।

फिर क्यों धर्म-धर्म की रट में तन-मन विगलित कर दूँ?
अपने जीवन के बसन्त को पतझरों से भर दूँ।
अरे मित्र गौतम! तू तो हर क्षण कर्तव्य विमुख है।
धर्म कर्म से भटक गया तू कहाँ ढ़ूढता सुख है?

प्रमुख कर्म अध्ययन विप्र का अर्चन अध्यापन है।
ज्ञान दान से बढ़कर कोई दान कहाँ पावन है?
उसे छोड़कर द्विज-कुल करता है मदिरा का सेवन।
नित्य कुकर्म अधर्म वेश्यागमन घ्रणित दूषित मन।

अरे राम! कैसी तुमने यह बुद्धि भ्रमित कर दी है।
गंगाजली विप्रमति है, उसमें मदिरा भर दी है।
जहाँ ज्ञान की गंध योजनो तक सुवास भरती थी।
सघन मूढ़ता के वन-वन में नव चिति संचरती थी।

जहाँ ज्ञान के अमृत-कलश वेदों से अभिमंत्रित थे।
परम शान्ति के शीतल जल से पावन अभिसिंचित थे।
आज वहीं दुर्भाव, द्वेष, छल, कपट प्रगतिगामी हैं।
सकल कामनाहीन विप्र हो गये घोर कामी हैं।

हाय! लोभ का काजल तुमने क्यों कर मुख पर पोता?
हंस-वंश हो रहा काक अज्ञान भवन में रोता।
अगर धरा के अमर प्रखर निज तेज बनाये रहते।
तो न कभी वे दीन दशा की धाराओं में बहते।

एक मीन नहीं ज्यों सरसी दुवार्स युक्त करती है।
इसी तरह यह दोष-गंन्ध द्विजकुल की छवि हरती है।
सखे! विश्वगुरु विप्रवंश भी इसीलिए रोता है।
तुम जैसों के कारण ही वह नित निनिदत होता है।

देख धुएँ के बादल क्यों जल की आशा करता है?
भावी जीवन क्यों कठोर पीड़ाओं से भरता है?
अरे दिग्भ्रमित गौतम! तेरा निर्णय नहीं मधुर है।
मान रहा हूँ फिर भी आखिर तू प्रिय है भूसुर है।