धर्म-दर्शन / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
धर्म सृष्टि का महाप्राण है, जग का संचालक है।
धर्म जगत की अबुझ ज्योति है, उज्ज्वल परिपालक है।
धर्म शुभ्र निर्झर प्रकाश का, आभूषण धरती का।
धर्म त्रिगुण का मेरुदण्ड है और सार जगती का।
धर्म दया का बन्धु सहोदर, धर्म ज्ञान का उपवन।
धर्म आत्मपथ का निर्देशक और-और सभ्यता-चन्दन।
धर्म मनुजता का सर्जक है धर्म कीर्तिप्रद पावन।
धर्मनीति का उन्नायाक है संस्कृति का नन्दनवन।
धर्म मधुर जीवन का प्रेरक, सुख दुख में समवर्ती।
धर्म स्नेह-सद्भाव पूज है, धर्म-बुद्धि दुख हरती।
धर्म मनुजता का सिंगार है स्वर्ण रत्न मणिकुण्डल।
धर्म सृष्टि का सूत्रधार है ज्ञान-ज्योति है उज्ज्वल।
धर्म एक है सत्य सनातन शाश्वत है उसी छवि।
धर्म सम्बलित सबको करता क्या निशि-दिव क्या शशि-रवि।
धर्म धुरी ब्रह्माण्ड अखिल की सकल सृष्टि निर्माता।
ईश्वर पिता, कर्म भाई है, श्रद्धा उसकी माता।
धृति, धी, विद्या, क्षमा, सत्य, दम, शौच अक्रोध अपरिमित।
इन्द्रिय-निग्रह और मधुरतम् शुचि अस्तेय व्यवस्थित है।
इतने सम्बलित अश्व दश जिसके जीवन रथ में।
कौन भला फिर बाधा उसको बाधिक करे सुपथ में?
दश उत्तम रत्नों से पूरित धर्म-कोष जीवन का।
कालजयी-व्यक्तित्व-मधुर है पारिजात जगवन का।
उसी धर्म की कथा व्यथा से आज रुदन करती है।
प्राणों में वेदना, दृगों में करुणा रस भरती है।
हाय! धर्म की दशा बिगड़ती क्यों इतनी जाती है?
धरा धर्म के अवमूल्यन पर रोती अकुलाती है।
अम्बर जिसे देखकर पुलकित आजादित होता था।
गौरव से उन्नत हिमाद्रि भी नित हर्षित होता था।
आज उसी की दशा देखकर चिन्तित है मन-अम्बर।
टूट रहा धरती का धीरज सुन अधर्म के कटु स्वर।
भूल गये उसकी मर्यादा हम सब हुए अधर्मी।
भीतर काले कर्म छिपाये बाहर से सत्कर्मी।
कहो भला फिर गैरों से अब क्या की जाये आशा?
बना हुआ है बन्धु, बन्धु के ही प्राणों का प्यासा।
धर्म परम सुख का साधन है वर मानवता का अनुपम।
धर्म दीप्ति मणि है जीवन की धर्म ईश सुन्दरतम।
धर्म चतुर्युगियों का पावन स्वर है संयोजक है।
धर्म अनादि अनन्त धरा पर संसृति आयोजक है।
धर्म स्वर्ग के फूलों से भी अति सुकुमार मधुर है।
धर्म खडृग की प्रबल धार से भी अति प्रखर मधुर है।
धर्म-पंथ कंटक-प्रसून मृदुहास पूरित है।
धर्म-पंथ पर घोर-शोर झंझाझकोर-झंकृति है।
धर्म-पंथ पर चलना लगता पीना कठिन हलाहल।
किन्तु कंटकों की गोदी में खिलता सुरभित पाटल।
और प्रखर आर्दश शिरोमणि धरती पर कहलाता।
पाता है अमरत्त्व सहज वह नर विशेष हो जाता।
नहीं सुधाघट मात्र, सुधा के सागर करते वन्दन।
नहीं मनुज ही, धर्मधीर का करते सुर पग-वन्दन।
नहीं धरा ही धन्य व्योम भी होना दर्शन पाकर।
धर्म-धीर के पद पंकज पा हर्षित है सचराचर।
किन्तु धर्म के पथ पर हरपल पंथी कब चल पाते?
जब बढ़ती शून्यता पंथ पर, तब धरती पर आते?
सत्य-धर्म का पालन करना नहीं मधुर क्रीड़ा है।
अग्निपान करना है हर पल कदम-कदम पीड़ा है।
लिए मथानी प्रखर की करते जीवन मन्थन।
और सुधाघट लक्ष्य प्राप्त कर धो देते अन्तर्मन।
बिना धर्म के मानव जीवन मणि विहीन हो जाता।
और भार लगता है भूपर पशुता में पछताता।
किन्तु धर्म के पथ पर कितने संकट जाल पड़े हैं।
बाधाओं के वन विराट हैं भीषण अद्रि अड़े हैं।
मरुमरीचिकाएँ कितनी पथ पर भ्रम सर्जन करती।
तृप्ति लोभ में और तृषाएँ अविरल-नर्तन करतीं।
धर्मनिष्ठ को फूल-कागजी कब आकर्षित करते।
दृढ़ करते संकल्प और है लक्ष्य सुनिश्चित करते।
बाधाओं के बिना पथिक को पथ का स्वाद न आता।
वीरों को करयरता वाला राग नहीं ज्यों भाता।
वट-वृक्षों की मूल शक्ति का मापन तूफानों में।
वीरों का आकलन ठीक से होता मैदानों में।
सत्य-धर्म की दिव्य रश्मियाँ बिखारते हर पथ पर।
और निरापद करते युग-युग तक मानवता का स्वर।
ज्ञान ज्योति के नव प्रकाश से करते जन मन उज्ज्वल।
द्वेष, दम्भ, पाखण्ड विसर्जित कर, देते हैं सम्बल।
धर्म-पंथ है अग्नि सिन्धु नर! तुझे पार जाना है।
लक्ष्य जिन्दगी का इससे पहले न रंच पाना है।
तट पर बैठे हुए लहर गिन-गिन कर क्या पायेगा?
जब तक धारा की गहरायी में न उतर जायेगा।
धर्मनिष्ठ है मुकुट सृष्टि का नभ का ध्रुवतारा है।
धरती का आदर्श विमल मानवता का प्यारा है।
मर्यादाएँ सकल अनुसरण में तत्पर रहती हैं।
वैभव की सीढ़ियाँ पाद-वन्दन हर पल करती हैं।
सदा संयमी धर्म धीर-धीर भव-बाधा से लड़ता है।
परम लक्ष्य के सोपनों पर वह रहता चढ़ता है।
करता नहीं कभी उफ संकट वह कितने भी सह ले।
उसे बाँध पाते न कभी वैभव के महल दुमहले।
तिनके-सा कर पदस्पर्श वह आगे बढ़ जाता है।
और कभी गन्तव्य पूर्व क्षण मात्र न रूक पाता है।
उस अखण्ड ब्रह्माण्ड रूप धारी का वन्दन कर लूँ।
महाकाल के चरणों का मिलकर अभिनन्दन कर लूँ।