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पुनरावृत्ति / प्रमिला वर्मा

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मैं क्या हूँ?
जो तुमने दिया, लिखा, भोगा वह हूँ मैं।
यह अंधकार जो छाया है मेरे चारों ओर
उसका कारण भी तुम हो।
यह सब नया नहीं है मेरे जीवन में।
ठिठक गई हूँ, इस अंधकार में
सूने गलियारे में।
लौट-लौट जाना पड़ता है मुझे
उस प्रकाश की खोज में,
जिसमें कभी मेरे पैर जलते थे।
तुमने ही तो ला खड़ा किया मुझे,
इस सूने अंधकार में
क्या यह खंडहरों पर,
पुनः
जी उठने वाली सभ्यता की पुनरावृत्ति नहीं है?
क्योंकि मैं बार-बार लौटती हूँ उन्हीं-उन्हीं रास्तों पगडंडियों,
उलझाने वाली झाड़ियों के बीच से,
कांटे परत दर परत मांस चीरते हैं।
तुम ही तो ऐसा कहते हो।
मेरे लौट जाने की पीड़ा पर हंसते हो।
मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो बंधु!
मैं तुम्हारे शब्दों के जाल में फंसी हूँ।
कभी सोच कर देखो, मैं जीवित हूँ।
कभी छू कर देखो, मैं शिला नहीं,
जीवित प्राण हूंँ।
मेरे शब्दों को जज्बातों का मोह नहीं।
जब तुम मुझे ना समझने का अभिनय
करते हो।
तब मैं रुष्ट होकर,
तुमसे अधिकार पाने,
तुम्हें समझाने,
अपने जीवित होने का एहसास दिलाने।
पीछे लौट-लौट पड़ती हूँ,
उन्हीं राहों से, पगडंडियों से,
चुभती झाड़ियों से
और!
मौन तीव्र वेदना देते कांटों को एक-एक करके
अपने शरीर से बीनती हूँ।
और तुम मेरे लौट-लौट कर वापस आने की
पीड़ा पर हंसते हो।
मेरे जीवन का यही एक क्रम है,
यही एक क्रम,
पुनरावृत्ति मात्र