भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अवशेष / अमृता सिन्हा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:10, 5 अक्टूबर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमृता सिन्हा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस संजीदा सी
साँवली लड़की में
कुछ तो था
जो अपनी ओर
खींचता था।

कॉलेज के कैंटीन में जब
दोस्तों का झुंड मस्ती करता
फ़िकरे कसता, ठहाके लगाता
तब वह सिर्फ मंद-मंद मुस्काती थी
सबों के बीच में रह कर भी अक्सर
जाने कहाँ खो जाती थी।

पहनने-ओढ़ने का भी
अलग-सा सलीक़ा था उसका
भीड़ में जाने से कतराती थी
यूँ, भीड़ से अलग दिखने की
सलाहियत थी उसमें
एक ख़ास तरह का नमक था उसमें।

अजब पहेली-सी लड़की
कहीं सब कुछ अभिनय तो नहीँ!
कोई छद्म रूप

या फिर सपनों के
टूट जाने का भय!

रोज़ नयी-नयी लंबी कारों से
कॉलेज के बाहर उतरना
उसे सखियों के बीच बड़ा बनाता था
आते ही उसके, कई जोड़ी उत्सुक
आँखें, बड़ी हसरत से देखा करतीं उसे।

पढ़ा करतीं उसके हाव-भाव
पर
आँखों पर चढ़ा रंगीन चश्मा
उसके व्यक्तित्व पर, गोपनीयता
की बर्क़ लगाता, ज़रा और तिलिस्मी बनाता।

एक दिन
वारिश में भीगे चेहरे ने
धो डाले नक़ाब, दोस्तों से छुप
न सका उसकी आँखों का मर्म
भावहीन आँखों के छलकते पैमाने ने
उगल दिये सारे राज़।

ख़ामोश लबों ने बाँट ही लिया
पूरा दर्द! रोज़ नई लंबी गाड़ी से
उतरने वाली खूबसूरत लड़की का दर्द!
लंबी कहानी का अनकहा पीर,

माँ आज ही अस्पताल में जीवन से
जूझती अलविदा कह गई थी,
लंबी गाड़ियों से आनेजाने का सिलसिला
थम चुका था,

उसे अब लंबी गाड़ियों से घिन
आने लगी थी,

उसकी
आँखों में बची थी
राख़
अधूरे सपनों की,
कुछ
धुआँते मन के
दरकते ख़्वाब।