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दिन विशेष / अमृता सिन्हा

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उगा सूरज,
रोज़ की तरह,
आसमान की सीढि़यों से उतरा
और
बिखर गया छम्म से
मन के हर कोने में
नख-शिख तैर गई ज्योति कोई
कौंध गई द्युति रोम-रोम में
उल्लास से भरी मैं
चुनती हूँ पलकों से फूलों के उजास,
साँसों से हवा में घुली सुगंध
त्वचा से मौसम की सिहरन
सोचती हूँ,
क्यों सब कुछ बदला-बदला-सा है इस बार?
खिड़की के पल्ले को
ज़बरन ढेलता हवा का तेज़ ये झोंका,
बिना इजाज़त घुसती
बारिश की मदमस्त फुहारें!
भीगने लगी हूँ मैं आँखें मींचे
बूँदें समेट रही है मेरी देह
केवल त्वचा ही नहीं भीग रही इस बार
भीगती तो थी हर बार
तो नया क्या है इस वर्षा में?
लगता है
बूँदें नहीं हैं ये केवल जल की
मेघ ने इन बूँदों में संगीत का स्वर भेजा है
गूँथ दिया है अपनी साँसों का ऊष्म राग
अलग है इस बार सब कुछ
क्योंकि तन मन ही नहीं
मेरे भीतर छुपी उस किशोरी की आत्मा भी
भीगी है इस बार,
जिसे छोड़ आई थी मैं गंगा-तट पर
युगों पहले।