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बारिश एक-मनः स्थिति दो / अमृता सिन्हा

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बारिश की तेज़ बौछार
नृत्य करती
हवा संग, कभी इस छोर
कभी उस छोर
बल खाती, इतराती
षोडसी-सी मतंग

धुले-धुले से पेड़
लहराते पत्ते,
मदमस्त हवा

बारिश को जी भर कर
जी ही रही थी
कि
दरवाज़ा खड़का

भीगी छतरी को सलीक़े से एक तरफ
कोने में रखते हुए
वो भीतर आई
देह पर ठहरी बूँदों को झाड़ती
मुझे देख मुस्कुराई

मैंने हुलस कर कहा
अहा!
बड़े दिनों बाद बारिश आई है,
ज़रा बैठ, आराम से निपटाना काम।

मेरी बात को अनसुना करते
हुए, आँचल खोंसा अपने खीसे में
करने लगी अपना काम, मैंने देखा ग़ौर से
पूछा सोई नहीं क्या रात भर?

अबकी बार झाड़ू रोक कर
मुड़ी मेरी तरफ, बोली-
पूरी रात खोली से पानी उलीचने में बीती
सोती कैसे दीदी?
छत टपकती है सो अलग।

बच्चों पर न टपके पानी
इसी क़वायद में बीत गई रात
कैसी आफ़त है ये बरसात

उसकी आँखों में
नींद का रेला था
उसने बारिश का प्रेम नहीं
अवसाद झेला था।

एक मुकम्मल छत और
दो जून की रोटी
में ख़लल थी बारिश

मेरी रूह को तर करती
मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू से भरी
मेरी जान
बारिश

उसे काँटों-सी चुभती
उसकी जान की आफ़त
बारिश।