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देखना एक दिन / अमृता सिन्हा

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ठूँठ जो हरा हुआ
तुम्हें क्यों खला?

बंद दरवाज़ा, एक फ़लसफ़ा
जो है
आधा बंद आधा खुला
शायद दस्तक हो कोई
या कि धीमी आहट
ये तुमने नहीं हवाओं ने सुना।

बाहर खड़ा निर्मम मौन
पाषाण जड़ अभेद्य चुप-सा
फिर ये संदेशों की पोटली किसकी?
मुखर हुआ कौन?
राहें तपस्वी योगी
तुम भी लीन
तपस्या में।
फिर चुनौतियों भरे इस निर्जन में
किसने दी आवाज़?
सूखे चरमराते पत्तों पर
ये किसके पदचाप?

विस्फरित नेत्रों से उत्तर
थाहते वृक्ष
पत्ते लगा रहे प्रश्नचिन्ह हैरत में आसमान
अनवरत बहते झरने पूछते हैं प्रश्न
स्निग्ध हवाओं की रूकी है साँस
आखिर किसने रचा है
प्रेम का राग?
क्यों सुवासित
हो रही धरती आज?

शब्दों को खुला छोड़ो
मायने आयेंगे ख़ुद-ब-ख़ुद
सहेज लो पेशानी पर झूलती लटों को
पसीजती हथेलियों को
नमकीन पानी में भीगे तलवों को

क्योंकि बदलता जीवन
हवाओं की थाती नहीं
बिखरने दो कोयल की कूक को
रात को पुकारती झींगुरों की पुकार को
देखना एक दिन
राह की सारी उष्मा बहा ले
जायेगी उदात्त नदी
अपने लय के साथ, अपने-आप।