भागता हुआ शहर / सरस्वती रमेश
कभी- कभी लगता है
मैं एक भागता हुआ शहर हूं।
स्वप्नों के बीहड़ से गुजरता
जीतता- हारता
चीखता- मुस्कुराता
रोशनी से फूला
अंधकार में सिमटा।
ऊंची इमारतों में चढ़ता
झुग्गियों में दुपकता
शनैः-शनैः, तीक्ष्ण-तीक्ष्ण
करवट बदलता
मैं एक भागता हुआ शहर हूं।
कभी- कभी लगता है
मैं शहर में आये अजनबी के
मन का एकांत हूँ
उसके मन की घबराहट हूं
उसके हृदय के किसी कोने में
कसकता हुआ गांव हूँ।
उसकी आंखों का सूनापन हूं
कड़की जेब में बैठी लाचारी हूं
और उसके सपनों की मृत्यु शैय्या हूं।
कभी-कभी लगता है
मैं एक जर्जर समय में
जीने के लिए छटपटाते
शहर की सांसे हूँ।
और कभी
शनैः - शनैः जलती
उसकी चिता से उठता
मातमी धुआं हूँ।
कभी-कभी लगता है
ये शहर मेरे भीतर
हाहाकार कर उठता है
और कभी बंद गली के
आखिरी मकान सा
चुप बैठ जाता है