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पत्नी की अट्ठाइसवीं पुण्यतिथि पर / केदारनाथ सिंह

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पहले वह गई
फिर बारी-बारी चले गए
बहुत से दिन
और ढेर सारे पक्षी
और जाने कितनी भाषाएँ
कितने जलस्रोत चले गए दुनिया से
जब वह गई

और जो बच गया शून्य
उसमें रहने आ गए
झुण्ड के झुण्ड शब्द
और किताबों के रेवड़
और बर्र की तरह
लिखी-अनलिखी कविताओं के छत्ते

और इस तरह शामें
होती रहीं सुबहें
सुबहें धीरे-धीरे
होती रहीं शाम

एक दिन यह सोचकर
कि जो ख़ाली है
शायद कुछ भर जाए
वाया कविता हो आया क्रेमलिन
देख आया —
लंदन
पेरिस
और सात समुन्दर पार का
लिबर्टी स्टेच्यू —
यानी एक बूढ़ी चिड़िया की
चूँ… चूँ… चूँ… चूँ…

और जो ख़ाली था
होता रहा ख़ाली और ख़ाली

और एक दिन देखता हूँ
कि नाम पुकारते हुए
सामने से आ रहे हैं
मंच और माइक
पुष्प-गुच्छ और पुरस्कार

और जब अलंकृत हो कर
उतर रहा था नीचे
तो लगा
कोई कान में बुदबुदा रहा है —
कवि जी,
यह कैसा मंच है
शब्दों का यह कैसा उत्सव
जहाँ प्यार की एक ही तुक है
पुरस्कार !

28 अक्तूबर 2005