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शहर हमारा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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भौतिकता की चकाचैंध में
लहराता है शहर हमारा

नैतिकता की बातें सुनकर
शरमाता है शहर हमारा।

बेाझ प्रदूषण का ढोता है-
गरल पी रहा, पिला रहा है।

घोर नरक को भी पछाड़ता
इठलाता है शहर हमारा।

युग के पेय, खाद्य सेवन कर,
बना सराय राजरोगों की।

डगर-डगर पर, बात-बात में,
गरमाता है शहर हमारा।

बना रहा व्यक्तिगत जिन्दगी
तोड़ रहा अपनों से अपने।

निगल-निगल कर मर्यादाएँ
सुख पाता है शहर हमारा।

बाहर से सु-वर्ण लगते सब
भीतर मानो काजल के गिरि,

धोखाधड़ी, मिलावट, ईर्ष्या,
बरसाता है शहर हमारा।