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प्रीति की बाँसुरी / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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कामना है सखे! मौन फिर हो चली।
मारकिन सभ्यता हो रही मखमली।

द्वेष दुर्गुण मिटे बन्धुता जग उठे
फिर मधुर हो उठे जिन्दगी की गली।

खोलकर पंख भव भावना उड़ चले,
मरुहृदय में ढले भक्ति गंगाजली।

षक्ति की साधना, शान्ति आराधना,
जन मनों में जगे खूब होकर बली।

ध्वंसधर्मा प्रगति है प्रलयकारिणी,
सृष्टि आयुष्य है लग रहा निर्बली।

चढ़ रही भ्रकुटियाँ फिर प्रकृति की कठिन
हर तरफ मच रही नित नयी खलबली।

श्याम! फिर प्रीति की बाँसुरी दे बजा,
आस राधा विर में बहुत है जली।

महमहाने लगी है बसन्ती हवा,
मुस्कुराने लगी बाग की हर कली।