किले हवाई नित्य बनाती सपनों में कामना सखे !
भटक रही मन के अम्बर पर शुष्क मेधमाला सी हैं ।
घोर स्वार्थ बस अन्धा अपनी गर्दन पर खंजर ताने
मनव से भयभीत प्रकृति सुषमा हो गयी प्रवासी है ।
औद्योगिक समुद्र मेथन के विषघट लाखों पचा रही है ।
सुधाधार जो थी पहले वह लगती अब गरला सी है ।
वे छाया में सदा पले हैं उन्हें धूप का बाकध नहीं ।
पतझारों पर हँसते रहते उनकी छवि मधुमासी है ।
प्रगति मशीनी चबा गयी है मेहनत के अध्याय धवल
सूने उजड़े खलिहानों में छायी घोर उदासी है ।
जलीं होलियाँ अरमानों की वसुधा से वन उजड़ रहे
जीभर कहाँ बरसते बादल, धरती रहती प्यासी है ।
गजल नहीं हूँ मैं दर्पण हूँ मुझे देख जीवन गढ़ ले
मानवते ! छवि तेरी क्योंकर हुई आज अबला सी है ?