Last modified on 6 दिसम्बर 2021, at 00:40

पगवंदन न कर सका / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:40, 6 दिसम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जाने कैसी हुई वेदना आँसू का सर्जन न कर सका।
मेरे नयनों तक तुम आये पर मैं पग वन्दन न कर सका।

प्रेम तुम्हारा सावन बनकर बरसा रिमझिम नित्य धरा पर,
पर मैं ही मन के बबूल को क्षणभर भी चन्दन न कर सका।

मन का पंछी स्वप्न लोक में भरता नित्य उड़ान रहा है।
तृष्णाएँ बलवती हो उठी मैं दुर्बल वर्जन न कर सका।

जड़ताओं के द्वार खड़ा यह युग जड़ होने को है आतुर
पाषाणों से मोह बढ़ाकर हरा भरा आँगन न कर सका।

तुम तो नित्य प्रेरणाओं की कंचनराशि रहे हो देते
नहीं सहेज सका तिलभर भी सार्थक ये जीवन न कर सका।

कामुकता की जलकुम्भी से हदय सरोवर आच्छादित हैं
क्योकर हैं निष्काम कर्म का योग न कोई सहन कर सका।

जति धर्म मत पंथ बनाता रहे उम्रभर अपने हित ही,
राष्ट्र एकता कि हित कोई क्यों अब तक पूजन न कर सका।