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अन्नपूर्णा की वापसी / ज्ञानेन्द्रपति

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भव्य है झाँकी, अकूत है भीड़ और अपार जनोत्साह
लेकिन प्रतिमा की आँखें डबडबायी हुई हैं
जिन्हें रह-रह, आँख बचा
पोंछ लेती है वह चुपके से
तब भी देख ही लेता है कोई शातिर सयाना
और कहता है बगल के जने को पुलकित स्वर में :
देखा न ! ख़ुशी के आँसू !
सौ साल बाद घर लौटने की ख़ुशी
जी में कहाँ अँटती है !
हाँ, सौ साल बाद लौटी है अपने देश के घर
परदेश के उस सज्जित संग्रहालय में जी कहाँ लगता था
केवल यही नहीं कि पारदर्शी काँच की मंजूषा में दम घुटता था
अपने लोगों से दूर निरन्न हो गया था उसके हाथ का अक्षय पात्र
चिन्ता मन को मथती थी
कि कौन खिलाता होगा उसके निखुराह शिव को दुलार से खाना
गिन-गिन के शिव के गण-गण को, जन-गण को
कौन जिमाता होगा जी-भर
कि दूभर हो गया होगा दिन पर दिन बिताना
उसके लोगों का उसके बगैर !
चली जा रही है झाँकी में सुसज्ज रथ पर सुवह
माँ अन्नपूर्णा की प्रतिमा
लेकिन रह-रह उसकी प्रस्तर-काया के भीतर दुर्वह हो-हो आता है
उसका दिल
उसमें दुख रिस-रिस आता है
अपने जनों का

जिनकी भँवराती ख़ुशी के बीच व्यथा की नाभि
अदीख नहीं है माता को
कि उसकी पोषण नलिका तो
जन-जन की नाभि से लगी है
हर हमेश!
जानती है वह
कि उसके ज़िला-दर-ज़िला, नगर-दर-नगर स्वागत के चुनाव-समयी अतिरेक को
घटा भी दें तो भी
तस्कर-अपहृत उसको अब वापस पा अपने बीच
प्रफुल्ल हैं उसके अपने लोग
जैसे कि भूख से बड़ी कोई भूख
मिट आई हो उनके अन्दर
जिसके ऊपर कसी हुई भूख
चाहे बढ़ आई हो इन सौ सालों में जाने कितने गुना
चली जा रही है जुलूस में
नाचते-गाते लोगों से घिरी
भारत-भरणी अन्नपूर्णा की प्रतिमा
उसकी जयकारों से कम्पित आकाश
उसके उद्विग्न माथे को आहिस्ते थपकता है
कोटि-कोटि क्षुधित भारतीयों की जठरागिन-आँच
उसके आँचल को झुलसाती-सी है
उसके हाथ के अक्षय पात्र में
भर आया है भारतीय किसानों का जीवन-क्लेश
आत्मघात को उकसाते उनके ऋण-बोझिल मन का सन्ताप
उनकी दुर्दशा के दृश्यों में दृष्ट दुख
उनकी गुहारों की गूँज, अनशनों की अनसुनी
उनके निरन्न कोठार का सूनापन, उनके जठर का शाश्वत जेठ
अन्नपूर्णा है वह, जिसके हाथ के अक्षय पात्र को अन्न से पूर्ण करने वाले
अपूर्ण छोड़ जा रहे हैं अपना कर्मठ जीवन थक-हार
स्वार्थी शोषण के शिकार

भले फैलता फलता हो किन्हीं का सत्ता-समर्थित लालची व्यापार
विश्वनाथ की सन्निधि में स्थापित होने से पहले
शोभा-यात्रा की नायिका
सौ साल बाद घर लौटी अन्नपूर्णा की वह चुनारी बलुहे पत्थर की ममतालु प्रतिमा
रह-रह अपनी डबडबायी आँखें चुपके से पोंछ लेती है, आँख बचा
तब भी देख ही लेता है कोई शातिर सयाना
और कहता है बगल के जने को पुलकित स्वर में :
देखा न ! ख़ुशी के आँसू !
सौ साल बाद घर लौटने की ख़ुशी
जी में कहाँ अँटती है !

(नवम्बर, 2021)