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मधुमय संवाद / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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कुछ न माँगा
माँगी उसकी खुशी
मुट्ठीभर धूप सी
अँधेरे मिले
टूटे इन्द्रधनुष
राहुग्रस्त चन्द्रमा।
150
स्वप्न गहन
अंक में था चन्द्रमा
आँसू गीले नयन
भीगे कपोल
स्वप्न क्या टूट गया
प्रिय ही रूठ गया।
151
बज्र शिलाएँ
चढ़ाई भी नुकीली
बरसें अग्निमेघ
गिरे तो अंत
चढ़ें तो अंगदाह
प्रारब्ध में था लिखा।
152
मन है एक
दुख सब अलग
बाँटें न बँटे कभी
घायल पाँव
चूर चूर सपने
चुभते काँच बन।
153
पत्थर पूजे
सिर भी टकराया
हाथ कुछ न आया
प्रतिदान में
घायल हुआ माथा
यही अपनी गाथा।
154
तप्त भाल पे
जड़ दू मैं चुम्बन
तन- मन शीतल,
झंकृत तार
हृदय का सितार
मिटें ताप -संताप
155
अरसे बाद
हुईं नेह बौछार
घुला था अवसाद
कानों में पड़ा
मधुमय संवाद
ज्यों कोई मन्त्रोच्चार।
156
मोती ही मोती
सुगन्ध से भी भरे
बहुत अनमोल
ग्रीवा की शोभा
स्नेहसिक्त भुजाएँ
कस कण्ठ लगाएँ।
157
पाखी-से उड़
पहुँच जाते हैं भाव
गले लिपट जाते
अश्रु हर्षाते
तुम योगिनी बनी
ढूँढूँ बन महेश।



25-11-21