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काठ होने से इंकार है / संतोष श्रीवास्तव
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खेल दिखाते अचानक
बाजीगर मर गया
सहम गईं कठपुतलियां
निष्प्राण हो लुढ़क गईं कोने में
अब न वो ठाट रहे
न तन पर गोटेदार लहँगा
न झुमके ,कंगना, पायल
न चाँद सितारों भरी ओढ़नी
न तमाशबीनों की आंखों में आकर्षण
हाथों में बंधी डोरियाँ
जगह जगह से टूट गईं
ओह, तो वे बंधन मुक्त हो गईं
आज़ाद हो गईं
उड़ने को आकाश में
चलने को कठोर राह में
सांस लेने को मदभरी हवाओं में
नहीं ,उनके हाथ में नहीं है डोरियाँ
बाजीगर का दिया ठाठ-बाट भी नहीं
ठाठ-बाट चाहिए तो
काठ होना पड़ेगा
और उन्हें काठ होने से
इंकार है अब