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आंचल की गांठ / संतोष श्रीवास्तव

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परीक्षा की कठोर घड़ी थी
उसे देना होगा सबूत
अपने वर्जिन होने का
जो नहीं देना होता
कभी पुरुष को

घर की बड़ी बूढ़ियां
परखेंगी सुहाग सेज को
उनकी संतुष्टि या कलंक का
कारण होगी सुहाग सेज
जो रची है परंपराओं ने
सिर्फ स्त्रियों के लिए

काल भी तो लेता रहा
सदियों से
यौनशुचिता की परीक्षा
कभी अग्नि प्रवेश
कभी शिला होने का शाप

धरती के जन्म से ही
स्त्री के आंचल के छोर में
बांध दी थी विधाता ने
यौन शुचिता की गांठ

मत करो स्त्री आजादी की बात
जो सिमट कर रह गई है
बस सुर्खियों में ,किताबों में