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बारिश में बुद्ध-प्रतिमा के सामने / सुमन पोखरेल

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भूल के सभी ब्याकलग और फाइलें,
छुट्टी मनाते हुए
सड़क के बीचोंबीच
चल रहे काफिले और जमी हुई भीड़ ।

इन्सान-इन्सान और छतरियाँ
छतरी-छतरी और इन्सान ।

ये छतरी से ढके हुए सरों पे
जेबुन्निसा हो या क्याथोरिन
क्लियोपेट्रा हो या फेनिच्का
सभी अपनी अपनी कहानियाँ जीते हैं आख़िर।

वर्ना,
बागमती में थोडा-सा टेम्स को मिलाना होता,
पिखुवा में थोडा-सा नाइल को बहाना होता ।

बुद्ध ने बन्दूक नहीं पकड़ी, कह के बात क्या करना!
पियानो भी तो नहीं बजाया उन्होंने।
न तो,
चित्र बनाने का कोई वृत्तान्त सुनाई देता है उनका कहीं ।

अंगुलीमाल की प्रशंसा की ही गई है
आम्रपाली को भी मेरा नमस्कार सुना देने से
कोई फर्क नहीं पड़ता ।

इस क्षण मुझे,
मिथक, इतिहास और कहानियों में सटी हुई अमूर्त आकृतियों से ज़्यादा
इस बारिश का बहा ले गया हुआ
साहसों की चिंता है ।

इस नल के बढ़-बढ़ के रास्ता रोकने पर,
कहीं पहुँचने को देर होने की चिन्ता से
मुझे मेरी मिट्टी बह जाने का गम ज़्यादा हो रहा है ।।

डर लग रहा है कि
बह-बह कर ही यह पहाड़
कहीं समतल न हो जाए ।


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(नेपाली से कवि स्वयं द्वारा अनूदित)