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विनय / धरणीधर कोइराला
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कुकर्मका कुझोकमा कती अकाल मा मरे ।
कुतर्कका कुबेगमा कती त व्यर्थमा परे ॥
कुकर्मले कुतर्क भो कुतर्कले कुकर्म भो ।
चल्यो प्रसङ्ग पापको अघोर ढेर भो प्रभो ॥
हरे ई जीव आफु नै ति पापमा घुडा धसी ।
गई पसी सडी मरी कुहीसके फसाफसी ॥
बिछट्ट पाप थुप्रियो असार सार मानियो ।
नधोइ धोइने भयो न काटि काटिने छ यो॥
उदार साहसी पनी परे यसै लपेटमा ।
कृपा-कटाक्ष कृष्ण हे घुमाउनोस् गरी क्षमा ॥
चन्द्रिका, ११३ फाल्गुन १९७४