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चिट्ठियाँ तारन्ता बाबू के नाम-5 / नाज़िम हिक़मत

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देखना
सुनना
अनुभव करना
सोचना
बोलना
लगातार बिना थमे दौड़ना
दौड़ना
दौड़ते चले जाना
तारन्ता – बाबू
हेइया !

भाड़ में जाए सब
कितना खूबसूरत है
अपने आपमें
ज़िन्दा रहना

मेरे बारे में सोचो
मेरी बाहें घेरती हैं जब तुम्हारे चौड़े नितम्बों को
मेरे तीन बच्चों की माँ
आँच से तपकर सोचो ,
सोचो काले पत्थर पर टपकती
पानी की नंगी बूँद की आवाज़ के बारे में ।
सोचो रंग के बारे में
गोश्त के बारे में, नाम उस फल का
जो तुम्हें सबसे ज़्यादा पसन्द हो,
अपनी आँखों में उभरते उसके जायके के बारे में सोचो
लाल सुर्ख सूरज के बारे में
कच्च हरी घास के
चन्द्रमा से फूटती, फैलती
अथाह नील, नील किरणों के बारे में !

सोचो, तारन्ता-बाबू : खींच कर निकाले हैं धरती के सातवें पाताल से
और गढ़े, कितने अगिया-बैताल, कितने स्पाती देव
और तबाह कर सकते हैं दुनिया को
एक ही प्रहार से ;
अनार जो साल में एक फल फलता है
हज़ार फल सकता है
कितनी बड़ी है या दुनिया
कितनी ख़ूबसूरत
कितने असीम तट इसके
कि बालू पर लेटकर रात में
सुन सकते हैं हम तारों भरे जल की आवाज़
 
कितना अद्भुत है ज़िन्दा होना
तारन्ता-बाबू
जिन्दगी कितनी विस्मयकारी है :
किसी महाकाव्य की तरह उसे समझना
सुनना उसे किसी प्रेमगीत की तरह
और जीना जीवन किसी आश्चर्यचकित शिशु के समान

एक एक करके
लेकिन एक साथ
जैसे अपन कोई अप्रतिम रेशमी कपड़ा बुन रहे हों ।

ओह, जीना .....
लेकिन कैसा अजीब तारन्ता-बाबू,
आजकल
यह बेशुमार ख़ूबसूरत प्रक्रिया
सर्वोत्कृष्ट अनुभव तमाम चीज़ों का
हो गया है
कितना कठिन
कितना संकुचित
कितना खूँखार
कितना अशालीन !

[यह पत्र एक इथोपियाई युवक की ओर से ‘गल्ला’ में रहने वाली अपनी पत्नी को संबोधित है]


अंग्रेज़ी से अनुवाद : सोमदत्त