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क्या सुनाऊँ तुझे / प्रशान्त 'बेबार'
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काश ख़ुदा करे
रहूँ जुस्तजू में तेरी, और फिर न पाऊँ तुझे
मगर ये हो नहीं सकता कि भूल जाऊँ तुझे
छायी रहे तू मेरी रूह पे इस क़दर
मैं नाउम्मीद के लम्हों में गुनगुनाऊँ तुझे
ये मुक़द्दर, ये मेरी तक़दीर कभी तो दिखलाएगी
तू भुलाना चाहे मुझे, मैं रह-रह के याद आऊँ तुझे
तू फ़स्ल-ए-गुल की माफ़िक़ ख़ुश्बूएँ लुटाती रहे
मैं शोख़ फ़िज़ाओं की तरह गुदगुदाऊँ तुझे
यूँ तो मैं तमाम रात आँखों में काट दूँ
मगर सुबह को हथेली पे लाकर जगाऊँ तुझे
वैसे, बड़े शौक़ से सुनता है ये सारा ज़माना मुझे
मगर मैं यही सोचूँ, क्या सुनाऊँ तुझे
क्या सुनाऊँ तुझे।