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नरभक्षी / हर्षिता पंचारिया

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जाते जाते उसने कहा था,
नरभक्षी जानवर हो सकते है
पर मनुष्य कदापि नहीं,
जानवर और मनुष्य में
चार पैर और पूँछ के सिवा
समय के साथ
यदि कोई अंतर उपजा था
तो वह धर्म का था

फिर सभ्यता की करवटों ने धर्म को
कितने ही लबादे ओढ़ाएँ,
पर एक के ऊपर एक लिपटे लबादों में
क्या कभी पहुँच पायी है कोई रोशनी?

धीरे धीरे अंधेरे की सीलन ने
जन्मी बू और रेंगते हुए कीड़े,
वह कीड़े जो आज भी
परजीवी बनकर जीवित है
मनुष्य की बुद्धि में,
जो शनै: शनै: समाप्त
कर देंगे मनुष्य की मनुष्यता को॥

जाते जाते मुझे उससे पूछना था
मनुष्यता की हत्या होने पर भी
क्या धर्म का जीवित रहना साक्ष्य है
मनुष्य के नरभक्षी नहीं होने का?