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निषिद्धता / हर्षिता पंचारिया

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हे मृत्यु!
कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!

इतनी कि रुक ही नहीं रही हो
असंख्य वेदनाओं के रुदन से
अनंत प्रार्थनाओं के स्वर से
और अब,
इन हथेलियों की रेखाओं को भी नहीं पता कि
कितनी दिशाओं से आओगी तुम।

मृत्यु कहती है कि
यहाँ जीवन निषिद्ध है
पर जीवन तो कभी कह ही नहीं पाया,
कि यहाँ मृत्यु निषिद्ध है
क्योंकि
निषिद्धता का नियम
योद्धाओं के हिस्से नहीं वरन
शासकों के हिस्से आया।

पर यक़ीन मानो,
हम सब अभ्यस्त हो रहे है
असमय और अकारण हो रहे युद्ध के
और हमारा अभ्यस्त होना
इस बात का परिचायक है कि
परिवर्तन के नियम क्रम में अस्त होना निषिद्ध है