भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निषिद्धता / हर्षिता पंचारिया
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:21, 7 मार्च 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हर्षिता पंचारिया |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हे मृत्यु!
कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!
इतनी कि रुक ही नहीं रही हो
असंख्य वेदनाओं के रुदन से
अनंत प्रार्थनाओं के स्वर से
और अब,
इन हथेलियों की रेखाओं को भी नहीं पता कि
कितनी दिशाओं से आओगी तुम।
मृत्यु कहती है कि
यहाँ जीवन निषिद्ध है
पर जीवन तो कभी कह ही नहीं पाया,
कि यहाँ मृत्यु निषिद्ध है
क्योंकि
निषिद्धता का नियम
योद्धाओं के हिस्से नहीं वरन
शासकों के हिस्से आया।
पर यक़ीन मानो,
हम सब अभ्यस्त हो रहे है
असमय और अकारण हो रहे युद्ध के
और हमारा अभ्यस्त होना
इस बात का परिचायक है कि
परिवर्तन के नियम क्रम में अस्त होना निषिद्ध है