रक्त-समाधि / विंदा करंदीकर / दामोदर खड्से
विचार-वाचन-भाषण से होकर मोहित हम
चले खोजने गाँव-खेड़े
और अन्त में दौड़ते पहुँचे जहाँ
नीला आकाश ऊपर;
हम धरती पर;
हरियाली चारों ओर;
और देवी के बागों के पक्षी करते खुसुर-पुसुर !
आतुरता से कम्पित हो फिर तू आई पास
और उस समय ! उस अद्भुत क्षण !!
अर्धोन्मीलित काली आँखों से
उससे भी अधिक काली ज्वाला उफन पड़ी;
गाल बोले, नेत्र बोले, होंठ बोले, एक ही शब्द — 'मुझे...मुझे'
पीठ पर केश तेरे खुले हुए;
सामने स्तन खिले-खिले उभरे हुए;
और उन उन्मादक
भरे-भरे नितम्बों के इर्द-गिर्द सुन्दर रेखाएँ मोहक
नितम्ब गोरे, मृदुल, गोल औ' मांसल;
मस्त, पुष्ट, मादक जंघाएँ सिहरतीं;
विवस्त्र हो तेरी कमर आगे मेरे झूमती ।
सीने से लगा तुझे, कसता आलिंगन
तब पसीने से भीगी देह सारी;
तीव्र, गूढ़ निःश्वास
गीत अनन्त अधूरे गाने लगे;
रक्त लगा गाने और नाचने;
मृत्यु से भी अमरता आने लगी;
प्राण-प्राण से जुड़ गई डोर सारी;
संगीत लहरी उठी रुधिरों से;
गीत अतीत के नये सुरों में लगे घुमड़ने अधरों से;
तुझमें समा, हुआ विसर्जित और मरा मैं;
स्वयं को तुझे पिला, तुझे जिया-पिया मैं;
मेरा 'मैं' गया; 'तू' आया...आया ।
जीवन संगीत हुआ, पिया जीवन-प्याला !
अव्यक्त को करने व्यक्त,
अद्वैत में ही घुल गईं गाँठे सारी
अद्वैत में ही भूला, मैं अपना मैं-पन
स्वत्व का संरक्षण;
और उस चरम अद्भुत क्षण में
दिक्-काल की बेड़ी भग्न हुई ।
रक्त-समाधि में दिव्य स्वरों में बोले जब हम दोनों —
तू 'आ...आ', मैं 'ले...ले...'
रक्त-समाधि लगी और विसर्जित माया;
मिला रक्त से रक्त बढ़ाने आगे जीवन !
मराठी भाषा से अनुवाद : दामोदर खड्से