भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुह्य-निलय के आयामों से / प्रवीण कुमार अंशुमान

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:20, 11 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रवीण कुमार अंशुमान |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपेक्षित था जो तुमसे
गुह्य निलय के आयामों से
अभिशप्त हुआ वो
अपूर्ण रहने को,

झल्लाने को, चिल्लाने को;
बस बेबस होकर
अभीप्सा तो
मेरी ही दुष्पूर थी,

अनिच्छा के बावज़ूद
आकांक्षा की सदा परिक्रमा
मैंने ही तो बस की थी;
मगर परे था समझ के
सबकुछ ही यहाँ पर,

जब-जब इच्छाओं ने
अपने दामन को फैलाया
मैंने एक सम्राट की तरह
उन्हें सर्वस्व अपनाया;

पर अनभिज्ञ था
पूरी तरह सदा ही इस बात से
कि सम्राट होना
अपनाने में नहीं होता,
और न होता है, अपना बनाने में;

इस शब्द का विस्तार है
अंतहीन, विस्तीर्ण सीमाओं के पार
आत्मसात पूर्णता को
तत्पर है जो करने को

सिर्फ़ तब, जब यह कर देता
खुद को पूर्णतः रिक्त सभी से
पता है ना!
सिर्फ शून्य ही पूर्ण होता है
बाक़ी सबकुछ होता है
अपूर्ण, बस अपूर्ण ।