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नींद और सपने / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

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नींद का आना
या फिर नहीं आना
इस बात पर बिल्कुल निर्भर नहीं करता
कि रात हो गयी है ,
दरवाज़े , खिड़कियाँ सब बेसुध हैं
और गहरी नींद की आस में आपने
बंद कर दिया है नाइट बल्ब भी

नींद कभी-कभी ज़िद पर अड़ जाती है
और आंखों की पुतलियों से निकलकर
प्रवासी मजदूरों सी
दुरूह सफर पर निकल जाती है,
नींद बेहद गणनात्मक होती है
और ठीक आधी रात को
बेहद हिसाबी-किताबी हो जाती है,
जीवन प्रमेय के हल की तलाश में
रात को ही पालथी मारकर बैठ जाती है

नींद बिस्तरों की मोहताज नहीं होती,
सड़क के डिवाइडर पर
दो तरफी वाहनों की चिल्लम-पों के बीच
बेफिक्र खर्राटों की आवाज़
ठीक वैसी ही ईर्ष्या पैदा करती है, जैसे
मेले का कोई छोटा व्यापारी
अपने अदने घोड़े को बेचकर निकल जाता है
और अरबी घोड़ों वाले साहूकार
बस लगाते रह जाते हैं बोलियाँ !

जबकि नींद और सपने
शायद एक दूसरे के पूरक होते हैं,
लेकिन नींद की अपनी सीमा है
और सपनों का अपना रहस्य

शायद इसलिए
अक्सर मैं थोड़ा भ्रमित रहता हूँ, कि
नींद के आगोश में जागते हैं सपने
या सपनों की गोद में सर रखकर सो जाती है नींद
क्योंकि आजकल
मेरी नींद और सपने अगल बगल लेटकर
मेरे साथ देर रात तक जागते हैं