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मृदुल मनोहर शाम / प्रभात पटेल पथिक

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एक विकल-मन देख रहा है बना पीर का धाम।
पश्चिम दिशि में उतर रही नव मृदुल मनोहर शाम।

गगनचरों को पुनः हुए स्मृत अपने-अपने नीड़।
और इधर इक प्रेम-परिंदा भटक रहा बिन नीड़।
एक प्रेम के बिखरे-मन को कहीं नहीं आराम।

पीत रश्मियों में जैसे हो दमक रहा प्रिय-गात।
जिसके आवेशों से दीपित इक प्रेमी की रात।
लिखा रश्मियों ने हो उसका ज्यों अपने कर नाम।

कवि का क्या है, कवि ने लिख दी है प्रेमी की पीर।
जाने कब प्रेमी के हिस्से आये रंग-अबीर।
विदा ले रही साँझ सौंपकर मेरा मुझे इनाम।