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जिस दिवस एक से / प्रभात पटेल पथिक
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जिस दिवस एक से दो हुए हम प्रिये!
सब नियम अंकगणितीय निष्फल रहे!
तुम वियोगिन हुई, मैं वियोगी हुआ,
प्रेम की पूज्य मूरत शिलावत रही।
तुम न बदली, न ही मैं जरा-सा हिला,
मान्यताएँ उभय की यथावत रही।
किन्तु यह सत्य है! पूर्णतः सत्य है!
एक सन्देश को दोनों बेकल रहे!
नेह की क्यारियाँ शुष्क हो जल गई
थी लगाई जिसे मिल युगलकाल मे।
कोई आकर मधुर रस चुरा ले गया,
इक लहर तक न आई अधर-ताल में।
हाथ पर हाथ धर, प्रश्न बैठे रहे-
एक शुरुआत के बिन, बिना हल रहे!
था बिछड़ना लिखा, पर मिलन भी लिखा
क्या कहें हम इसे, या कि क्या नाम दें?
प्रेम का पूर्ण होना कदाचित् यही-
प्रेम का फल वही जो कि प्रभु राम दें!
प्रेम गह्वर, नदी, शैल, सागर कभी,
प्रेम 'एनएच' नहीं, जो कि समतल रहे।