नस्लदार / बाद्लेयर / सुरेश सलिल
वो भोण्डी है, हालाँकि मजे़दार।
वक़्त ने और इश्क ने अपने पंजों से उसे नघोचा है और बेरहमी के साथ सिखाया है कि जवानी और ताज़गी के दौरान हरेक पल और हरेक चुम्बन की क़ीमत क्या होती है ।
सचमुच भोण्डी है वो, एक चींटी, एक मकड़ी, मजबूरी हो तो कंकाल भी कह लो, मगर वो ख़ुराके-इश्क़ भी है, लफ़्जे- महारत, एक जादू । कुल मिलाकर जज़्बे से भरपूर ।
वक़्त ने उसकी हरकतों के तालमेल को — ज़िन्दादिल तालमेल को — तोड़ा नहीं है, न ही उसकी हड्डियों की बनावट की नाक़ाबिले-बयान नज़ाकत को । इश्क़ ने बच्चे की किलकारी - जैसी उसकी मिठास को दूषित नहीं किया है, और वक़्त हल्का और बारीक़ नहीं कर पाया है उसके अयाल के देशों को, जिनसे वो जिस्मानी ख़ुशबुओं में धूप से नहाए प्रेमल और आनन्ददायी, दक्षिणी फ्रांस के, शहरों की सारी हैवानी मर्दानगी टपकाती है ।
वक़्त और इश्क़ ने बेकार ही धँसाए उसमें अपने दाँत, वे उसके धुन्धले किन्तु शाश्वत बाल्यवक्ष की मोहिनी को कम करने के सिवा उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।
छीजी हुई शायद, मगर ऊबी और थकी नहीं । अब भी जोश से भरपू र। किसी को भी उन नस्लदार घोड़ों की बाबत सोचने को मजबूर कर दे, जो छकड़ा गाड़ी या ख़स्ताहाल इक्के में नधे होते हुए भी पारखी की नज़र से बच नहीं पाते ।
याने कि बेहद शाइस्ता और जिस्मानी तलब से भरपूर! वो इस तरह इश्क़ करती है, जैसे कोई शरद ऋतु में करता है । आप सोचेंगे शीतकाल की आहट उसके दिल में एक नई आग दहका रही है और उसकी नज़ाकत की जी-बरदारी क़तई और रत्ती-भर थकी हुई नहीं।