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अपराह्न गान / बाद्लेयर / सुरेश सलिल

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तुम्हारी कुटिल भृकुटियाँ
यद्यपि तुम्हें देती हैं अनूठा रूपरंग
जो किसी फ़रिश्ते का नहीं,
मनमोहनी आँखों वाली जादूगरनी !

तुम्हारी आराधना करता हूँ मैं
ओ मेरी चंचल, मेरी बेमिसाल उमंग
अपनी आराध्य प्रतिमा के प्रति
किसी पुजारी की निष्ठा के साथ

बंजर और जंगल देते हैं अपने इत्र
तुम्हारे बण्डैल बालों को
तुम्हारे सिर पर बुझौवल और रहस्य के काँटे
तुम्हारी देह के आसपास तैरती है ख़ुशबू
जैसे किसी धूपदानी के चारों ओर

सन्ध्या-सरीखी मोहिनी डालती हो तुम
ताती, मायाविनी अप्सरे !
आह ! वशीकरण-अभिमन्त्रित घुट्टियाँ
नहीं कर सकतीं समता तुम्हारी अलस मोहिनी की

और तुम अवगत हो उन प्रेमल स्पर्शों से
मुर्दे को जो जीवन दे देते हैं
तुम्हारे नितम्ब प्रेम-निमग्न हैं
तुम्हारी पीठ और वक्षों के साथ

और तुम उत्तेजित करती हो बिछौनों को
अपनी ऊब-भरी ठवनों से
यदा कदा शान्त करने अपना मायावी आवेश

एक संगीन भंगिमा के साथ
ढँक लेती हो तुम मुझे
दंशनों और चुम्बनों में
टूक टूक करती हो तुम मुझे

ओ निगूढ़ सुन्दरते, एक छलना हँसी से
फिर लिटा देती हो हृदय पर मेरे
चन्द्रमा जैसी सौम्य - कोमल अपनी दृष्टि

मखमल से सज्जित तुम्हारी पादुकाओं और
रेशम से सौम्य तुम्हारे पाँवों तले
बिछा देता हूँ मैं अपना अभेद आनन्द
प्रतिभा अपनी, अपनी नियति
मेरी आत्मा तुम्हारे द्वारा उपचारित
तुम्हारे द्वारा रौशन और रंजित !

और स्फोट आवेग का अनिर्वार
मनहूस साइबेरिया में मेरे !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल