हंस / बाद्लेयर / सुरेश सलिल
यह कविता ‘ताब्ला पारीसियाँ’ काव्य -शृंखला में इसी ’हंस’ शीर्षकवाली कविता का दूसरा अंश है।
पेरिस बदल रहा है ! किन्तु कोई हलचल नहीं मेरी उदासी में !
नए प्रासाद, मंच-मचान, ब्लाॅक, पुराने आबाद इलाके —
सब कुछ मेरे लिए एक प्रतीक-कथा
और मेरी प्रिय यादें शिलाखण्डों से भी भारी ।
लिहाज़ा, यहाँ उसी लूव्र<ref>पेरिस का विश्वविख्यात कला संग्रहालय</ref> के सम्मुख
तंग करता है मुझे एक बिम्ब :
मुझे अपने महान हंस का ख़याल आता है
उसकी विक्षिप्त चेष्टाएँ; किसी निर्वासित जैसा
हास्यास्पद और भव्य, व्यथित एक अविरल आकांक्षा से;
और फिर तुम्हारा, अन्द्रोयाके<ref>त्रोय के युद्ध में त्रोय के महान योद्धा हेक्टर की पत्नी, जो युद्ध में हेक्टर का वध होने के उपरान्त अकिलीस के पुत्र पीरस के हिस्से में आई थी और उसके पुत्र की माँ बनी थी। एक अन्य वृत्तान्त के अनुसार, पीरस के निधन के बाद उसका विवाह हेलेनस के साथहो गया था।</ref>
छूट गिरी एक बलिष्ठ पति की बाँहों से,
अब एक बदनसीब गायगोरू : वंचक पीरस की गेरइयाँ में बँधी,
मूर्छित-झुकी हुई एक ख़ाली क़ब्र की बग़ल में,
हेक्टर की विधवा, आह ! ... और ब्याहता हेलेनस की ।
ख़याल आता है उस नीग्रो औरत का
छीजी और क्षयग्रस्त, खूँदती हुई कीचड़
और फटी-फटी आँखों से खोजती हुई
गुम होते नारियल के दरख़्त गर्वित अफ्रीका के
कोहरे की विशाल दीवार के पीछे;
उस किसी का, जो खो चुका वह जिसे
वापस नहीं लाया जा सकता दोबारा कभी भी,
और उनका, जिन्हें पीने को हैं फ़क़्त आँसू
उनका जो किसी समय मादा भेड़िये की तरह
व्यथा और उदासी मुँह में ले लेते हैं;
दुबले यतीमों का, जो फूलों की तरह मुर्झा रहे ।
और उस बयाबाँ में जहाँ मेरी आत्मा भटभटाती है खोई हुई
एक पुरानी याद अपना बिगुल बजाती है पूरी आवाज़ में !
मैं जहाज़ियों की बाबत सोचता हूँ, किसी द्वीप में खोये,
क़ैदियों की बाबत, जहाज़ियों की बाबत...
और दूसरे बहुतो से लोगों की बाबत भी...
अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल