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प्रेम और कपाल / बाद्लेयर / सुरेश सलिल

एक पुराना उत्कीर्णन

मन्मथ’ बैठा है
मानवता के कपाल पर,
और इस सिंहासन पर आसीन पालकी
अपने विवेकहीन हास्य के साथ
मुदित मन
चारों ओर फूँक रहा बुलबुले,
उड़ते हैं हवा में जो इस तरह
मानो ईश्वर के सुदूर सिरे के लोकों में
पहुँच कर ही फूटेंगे

चमकदार-सुकुमार भूमण्डल
पूरी ताक़त से उड़ान भरता है,
फटता है, उगल देता है अपनी आत्मा
किसी सुनहरे सपने जैसी नाज़ुक

सुनाई देती है मुझे, हरेक बुलबुले पर,
कपाल की गिड़गिड़ाहट
और पीड़ायुक्त क्रन्दन  :
‘कब विराम लेगा यह बर्बर-बेहूदा अहेर ?’...

‘हत्यारे पिशाच, तेरी यह क्रूर छवि
छितरा रही जो यहाँ-वहाँ —
मेरी मेधा है, मेरा रुधिर है
और मेरी देह है ।’

यूनानी पौराणिकी के ‘क्यूपिड’ के लिए। वह अफ्रोदिता (वीनस) का बेटा था और प्रायः उसको चित्रण शिशु रूप में माँ की गोद में हुआ है। उस उम्र में भी इतना शरीर कि एक बार अपना बाण माँ के ही वक्ष में चुभो दिया। बख़्शा उसने ख़ुद को भी नहीं, और इस तरह ‘साहके’ के साथ उसका नाम जुड़ा।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल