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कलाकार का पाप-स्वीकार / बाद्लेयर / सुरेश सलिल

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शरद के दिनों का समापन। कितने बेधक हैं ये ! ओह, वेदना के बिन्दु तक खुले हुए ! चूँकि वहाँ कुछ रुचिर अनुभूतियाँ हैं, जिनकी अस्पष्टता तीव्रता को बाधित नहीं करती — और असीम से बढ़कर कोई तीक्ष्ण बिन्दु नहीं।

कितना आह्लादक है आकाश और सागर की विशालता में अपलक दृष्टि को विसर्जित कर देना ! एकान्त, निस्तब्धता, अतुलनीय निर्मलता उस नीलिमा की ! एक नन्हा पाल थरथराता हुआ क्षितिज पर, उसकी लघुता में, और उसके एकाकीपन में मेरे असाध्य अस्तित्व की एक छवि, तरंगों की विरसलय — सोचती हुई ये सादी चीजे़ं मुझमें से गुज़रकर, या मैं सोचता हुआ उनमें से गुज़रकर (क्योंकि स्वप्नों के फैलाव में ‘स्व’ अविलम्ब खो गया); वे सोचती हुई मैं दुहराता हुआ, किन्तु सुरीले अन्दाज़ में, और एक तरह की चित्रकारिक शैली में — निपुण संकेतों के बिना, हेत्वानुमानों के बिना, निष्कर्षों के बिना।

एक ही बात; ये विचार मुझमें से आएँ, या वस्तुओं में से उभरें, शीघ्र ही उत्कट हो जाते हैं। प्रबल वासना सिरजती है एक रुग्ण अनुभूति, और रचनात्मक वेदना । मेरी रगें, बेहद तनी हुई, उत्पन्न करती हैं अब मात्र कर्णभेदी और सृजनात्मक कम्पन ।

और अब आसमान की गहनता मुझे भय से भरती है, उसकी सुस्पष्टता मुझमें गुस्सा जगाती है। सम्वेदनहीन सागर, अपरिवर्तित दृश्यलोक मुझमें विद्रोह जगाते हैं...।

ओह्, क्या निरन्तर खटना होगा, या निरन्तर पलायन करता रहेगा रमणीय ? प्रकृति, निर्दय छलने, सदाविजयी प्रतिद्वन्द्वी, अकेला छोड़ दे मुझे ! बन्द कर दे मेरी इच्छाओं को, मेरे गर्व को लुभाना । सुन्दर का अध्ययन एक अनुयुद्ध है, जिसमें कलाकार पराजय से पहले याचना करता है ।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल