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देकार्त और कालिदास / दिनेश कुमार शुक्ल

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यदि जानता
कि तुम जानती हो कि कैसे
मधुमक्खियाँ समय का निर्माण करती हैं
तो शहद के साथ-साथ
माँग लेता तुमसे थोड़ा-सा और समय

तब जब
कहीं नहीं बची कोई कल्पना आकांक्षा
नहीं बचा कोई विचार
अन्धकार तक नहीं छुपने के लिए बचा
मधुमक्खियों ने अपने पुद्गल से बनाया सूर्य
फूलों से भर दिया
सम्भव किया संसार में संचार
साक्षी बना कर तुम्हें
कि अंकुरण हो, खिलें फूल, मुरझायँ भी,
बनें बीज... समय को सम्भव किया
मधुमक्खियों ने अपने गुंजार से

मधुमक्खियों ने ही
तुम्हें सुनाया प्रसंग कि
यह जो जल है, है और सोचता है
यह अग्नि भी है और सोचती है
यह दुख है और विचार में डूबा है
क्या सोचता है जल, अग्नि क्या जानती है
दुख कितना गहरे डूबा है किन विचारों में

देकार्त ने पूछा कालिदास से
देकार्त ने पूछा, यदि
समय से निकलती है स्मृति
तो क्या स्मृति से नदी निकल सकती है
नदी से गेहूँ और गेहूँ से
किस तरह निकलती है भूख
क्रोध से प्रेम अग्नि की तरह
कैसे हो जाता है प्रकट
कविता के बारे में जब
देकार्त ने कुछ नहीं पूछा
तो कालिदास हुए आश्वस्त
अपूर्व आत्मविश्वास के साथ उन्होंने
काई से काली पड़ी चट्टान पर
गेरू से ग्रीक भाषा में लिखा
फूल शहद मधुमक्खी
लोगोस

मधुमक्खियों ने ही बताया तुम्हें
कि हमें भी बताओ तुम
कि क्या सोच रही हैं नदियाँ इन दिनों
हवा और बच्चे क्यों हैं सहमे हुए
आग क्यों धधक रही है लिप्सा की
तूफान क्यों घिरता आ रहा है भ्रम का
आँसुओं में क्यों है इतना नमक
आखिरकार कपड़े उतार कर
प्रजातन्त्र ने पहन ही लिया राजमुकुट

जब नहीं होंगी मधुमक्खियाँ
क्या होगा तब उदुम्बर के मधुकोष का
किस छत्ते में तब तुम डालोगी हाथ

जानता हूँ कि जानती हो
कि हम जानते ही हैं कितना!