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नवलगढ़ की सन्धि / दिनेश कुमार शुक्ल

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इधर पारे की नदी
उधर ताँबे के पहाड़
नवलगढ़ का स्वप्न में डूबा हुआ मैदान
चादर-सा बिछा है बीच में

ताम्रयुग के रहस्यों में तैरता
चन्द्रमा घुसता गुफाओं में
सो रहा है समय का जल
बहुत कोमल धातुओं के राग से
गुफाओं की भित्ति पर जीवन लिखा है
अमिट अक्षय

चटक पीली धूप में घुल रही है
नवलगढ़ की चाँदनी
दूध में हल्दी
हवा में उड़ता पराग ला रहा है वाइरस
खुशबुओं से बचो रंगों से बचो
गहो मेरे हाथ सन्धि की सन्ध्या
चलो मेरे साथ...
पीपल हँस रहा है
और बरगद से टपकता दूध
कर रहे हैं प्रतीक्षा नियेंडरथल
चलो मेरे साथ
सारस जा चुके हैं
दूर तक पसरे हुए हैं खेत

अभी थोड़ी देर में
नवलगढ़ के किले की खिड़की खुलेगी
और सूरज चन्द्रमा में डूब जाएगा
बह रही है नदी लोहे की
कह रही है-
नवलगढ़ की कठिन कोमलता
परस-रस में लसी है
कसी काया की कसौटी पर खरी उतरी
अस्त होते सूर्य की आभा सुनहरी
चलो मेरे साथ

सम्भव असम्भव स्यात् की सीमा बनाती
बह रही है तीन तट वाली नदी
कह रही है नवलगढ़ की कठिन कोमलता
छुओ मुझको
कहीं जाने का नहीं है अब समय
रहो मेरे साथ!