Last modified on 30 अप्रैल 2022, at 23:53

आस्था - 24 / हरबिन्दर सिंह गिल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:53, 30 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

परंतु मानवता
अपनी ही, संतान के हाथों
कठपुतली बनकर रह गई है
और सरेआम बिक रही है
गलियों में, सड़कों पर
फुटपाथों पर, चौराहों पर।
बसों में, रेलगाड़ियों में
समुद्र में, हवा में।

कहीं भी देख लो
चारों तरफ
नजर आएंगी
लाशें ही लाशें
परंतु मानव
इन्हें कर नजरअंदाज
बड़े गर्व से
बढ़ जाता है आगे
सोचकर
ये सीढ़ियां हैं
मातृभूमि के मंदिर तक।