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आस्था - 29 / हरबिन्दर सिंह गिल

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इस संकीर्णता की दुनियाँ में
मेरी माँ-मानवता को
बेड़ियों से मुक्त
देखने की अभिलाषा
अपनी ही मौत मर रही है
अपने ही अंतः में
सवालों की बारिश
सिर्फ एक जवाब माँग रही है
क्योंकर मैंने
मानव की इस धरती पर
एक ऐसी
अभिलाषा को है दिया जन्म।

शायद
मैं बहुत बड़ा मूर्ख था
न कर सका महसूस
जब मानव
अपने ही माता-पिता से
अलग होने में
नहीं करता झिझक
तो फिर क्यों
वो ऐसे विचार को देगा जन्म
ताकि सोच सके
उसे कराना है आजाद
माँ-मानवता को
सदियों से जकड़ी जंजीरों में।