भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 41 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:07, 1 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मानवता को जब मैं
काल्पनिक दुनियाँ में
निहारता हूँ
कहीं कुछ, बहुत ज्यादा अधूरा सा दिखाई
देता है
जो उसके
चेहरे की उदासी को
और भी दयनीय बना देता है
जैसे माँ
अपने ही बच्चों के घर में
अनाथ होकर रह गई हो।
उसके चेहरे पर
कुछ खोया सा
लग रहा था
जिसके अभाव में
शायद
नारी का व्यक्तित्व
या तो अधूरा लगता है
या फिर नग्न
होकर रह जाता है।
हाँ, उसे चुनरी कहते हैं।