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आस्था - 47 / हरबिन्दर सिंह गिल
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चुनरी की महत्ता का
बोध तो तब होता
जब मानव स्वयं की
पगड़ी की
गरिमा को समझ सकता।
वक्त था
पगड़ी की लाज के लिये
कट जाया करते थे सिर
इतना ही नहीं
बुजुर्गों की पगड़ी
उनकी औलाद
अपना ताज समझती थी।
हाँ यह सब
अभी भी होता है
परंतु स्वयं के लिये
क्योंकि उसे चाह है
अपने सिर पर
देश का ताज रखने की।
काश मानव
समझ सकता यह फार्क
पगड़ी और ताज में
मानवता की ओढ़नी
यूं ही न
गुम होकर रह जाती।