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आस्था - 57 / हरबिन्दर सिंह गिल

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बहुत हो गई
ये आँख मिचौली
जो मानव
मानवता के साथ
खेल रहा है।
कभी धर्मों के नाम पर
सड़कों पर
मानव-मानव के पीछे
भागता दिखाई देता है
तो कभी
भाषा के नाम पर
सड़कें सुनसान
होकर रह जाती हैं
तो कभी
राष्ट्रीयता के नाम पर
सड़कों पर
मानव की बाढ़ सी
उमड़ आती है
तो कभी
न्याय के नाम पर
सड़कों पर
बाजार लुटा सा दिखाई देता है।

अगर यह हाल है
आँख मिचौली का
तो क्या होगा
जब मानव
खोल आँख की पट्टी
नजर आएगा
नंगा नाचता सड़कों पर।