भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 65 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:24, 1 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूछ कर तो देखा होता
क्या गुजरती है
माली के दिल पर
जब उजड़ता है
हँसता खेलता गुलशन।

भगवान ने तो
बनाई थी यह प्रकृति
जहाँ मानवता
बन परी
कर सके विचरण
अपने ही बच्चों में।

परंतु उसे
क्या था मालूम
मानव की संकुचित आस्था
ममता को ही
कर दूषित
कर देगी दूभर
माली का जीना ही।