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आस्था - 70 / हरबिन्दर सिंह गिल
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सपनों की दुनियाँ में
देखा है मैंने
मेरी माँ-मानवता को
ओढ़े एक चादर
और बीन रही है वो
धर्म रूपी मोतियों को
जो गली-गली में
बिखरे हुए हैं
ताकि, वो
झगड़ते हुए भगदड़ में
मानव के पैरों तले आकर
चूर-चूर न हो जाएँ।
काश मानव भी
ओढ़ सकता
इस चादर को
उसे हो जाता एहसास
किस तरह
छुपा रखे हैं
उसकी माँ-मानवता ने
गुनाह उसकी औलाद
के अपनी ही झोली में।