भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 70 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:26, 1 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपनों की दुनियाँ में
देखा है मैंने
मेरी माँ-मानवता को
ओढ़े एक चादर
और बीन रही है वो
धर्म रूपी मोतियों को
जो गली-गली में
बिखरे हुए हैं
ताकि, वो
झगड़ते हुए भगदड़ में
मानव के पैरों तले आकर
चूर-चूर न हो जाएँ।

काश मानव भी
ओढ़ सकता
इस चादर को
उसे हो जाता एहसास
किस तरह
छुपा रखे हैं
उसकी माँ-मानवता ने
गुनाह उसकी औलाद
के अपनी ही झोली में।