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बचपन - 13 / हरबिन्दर सिंह गिल

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मानवता ने बचपन के दिन,
जब मानव अनपड़ था
उसको आभास नहीं था
वह ज्ञान का भण्डार है।

मानवता के बचपन के दिन,
जब मानव असभ्य था
उसको आभास नहीं था
सभ्यता ही उसका श्रृंगार है।

मानवता के बचपन के दिन,
जब मानव खानाबदोश था
उसको आभास नहीं था
गाँव ही उसका घर है।

मानवता के बचपन के दिन,
जब मानव अविकसित था
उसको आभास नहीं था
विकास ही मानव की श्वांस है।

हाँ जैसे ही मानव
यह जान गया
वह बंदर नहीं मानव है,
वह अज्ञानी नहीं, ज्ञानी है,
वह असभ्य नहीं सभ्य है,
वह खानाबदोश नहीं सामाजिक है
और वह अविकसित नहीं रहा।

उसने शुरू कर दिया
विकास ही विकास
मानव के अहं का
भूल गया दिन
मानवता के बचपन के।

घटनाएँ और शरारतें
बचपन में होती रहती हैं
और यही
बचपन को जीवित रखती हैं
इन्में एक भोलापन होता है।

ये किसी मस्तिष्क की उत्पत्ति नहीं होती
ये तरंगों और उमंगों के
अद्भूत मिलन का योग होता है।

उनमें कोई स्वार्थ नहीं होता
वो प्रकृति में छिपी
खुशियों का भंडार है।

बच्चों की नटखट शरारतों में
एक संदेश है
हर मानव के लिये
वह अपनी भावनाओं को
इससे पहले कि मस्तिष्क में
प्रवेश कर सके
उसे प्रकृति के झरोखों
से गुजर आने दो।

इन आम घटनाओं में
सिर्फ लड़कपन नहीं होता।
यदि गंभीरता से कोई पढ़े
भविष्य की रेखाएं ही बदल देता है।

गौतम बुद्ध जो राजकुमार था
वनों में सन्यासी बनकर रह गया।
उसने घायल पंछी पर
ठहाका मारकर हँसने के बजाय
उसकी पीड़ा की आवाज को
जीवन का अर्थ बना लिया।

जब बचपन की यह घटना
उसकी आत्मा की गहराई में पहुँची
मानवता के लिये
अमोल अहिंसा का संदेश छोड़ गई।
हर नारी जो माँ है
प्रार्थना है इस कवि की।

इससे पहले कि बालक आँखे खोले
मानवता की गोद में डाल दें।
इससे पहले कि बालक माँ बोले,
मानवता की लोरी सुनाए।

इससे पहले कि बालक चलना सीखे
मानवता की राह दिखाए।
इससे पहले कि बालक पाठशाला जाए
मानवता का उच्चारण सिखाए।
इससे पहले बालक कमाना सीखे
मानवता के कर्ज का बोध कराए।

इससे पहले बालक मानव बन
संसारिक प्राणी बने
उपरोक्त सीख
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिये
विरासत में छोड़ जाएँ