भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दिन स्त्रियाँ / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:53, 3 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन कश्यप |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैंक होगा
वहाँ स्त्रियाँ नहीं होंगी
विश्वविद्यालय होगा
टेलीविजन भी होगा
हस्पताल भी होंगे
पर स्त्रियाँ कहीं नहीं होंगी
उन्हें न तो पैसे की ज़रूरत होगी
न ही शिक्षा या इलाज की
आवश्यकता बस होगी तो केवल हिजाब की
 
काले बुर्कों में क़ैदकर
उन्हें डाल दिया जाएगा काली कोठरियों में
जहाँ कभी-कभी कुछ ख़ौफ़नाक आवाज़ें आएँगी
बन्दूकों की या अजानों की
औरतों के चीख़ने की या बच्चों के रोने की
धीरे-धीरे मिटती चली जाएँगी उजाले की स्मृतियाँ

सबसे जहीन स्त्रियाँ, बस, जुगत लगाती रहेंगी
कि पतियों की पिटाई से कैसे बचे
सबसे सुन्दर स्त्रियाँ ख़ैर मनाती रहेंगी
धर्मधुरन्धरों की निगाहों से बचे रहने की
फुसफुसाहटों और सिसकियों तक
सीमित हो जाएँगी सबसे ख़ूबसूरत आवाज़ें
कला केवल भोजन पकाने की रह जाएगी
वैसे करने को होगा बहुत कुछ
लेकिन रसोई और बिस्तर से बाहर कुछ भी नहीं

ज्ञान, बस, थोपे गए कर्तव्यों के पालन के लिए होगा
दहशत इतनी गहरी होगी
कि कई बार उसके होने का एहसास भी नहीं होगा
फिर एक दिन ब्लैकहोल में तब्दील हो जाएँगी
काली कोठरियाँ
और संगीनों के साये में मुर्दा हो रहीं स्त्रियाँ
हमेशा के लिए उनमें दफ़्न हो जाएँगी
बच्चा जननेवाली कुछ मशीनों को छोड़कर !