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हे नवीना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / प्रयाग शुक्ल

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हे नवीना,
प्रतिदिन के पथ की ये धूल
उसमें ही छिप जाती ना !
उठूँ अरे, जागूँ जब देखूँ ये बस,
स्वर्णिम-से मेघ वहीं तुम भी हो ना ।।

स्वप्नों में आती हो, कौतुक जगाती ।
किन अलका फूलों को केशों सजाती
किस सुर में कैसी बजाती ये बीना ।।

मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल