भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचपन - 35 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:51, 9 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय नहीं रह गया है
और देर न कर समझने में
कि बचपन की अपनी माँ की गोद
जिसमें बैठकर माँ का दूध पीया है
अपना बचपन खेला है,
मानवता की गोद से,
जहाँ उसने अपनी जिंदगी का
खेल खेलना है
और जिसके आंचल के साये में
सीखेगा अर्थ जिंदगी का
मात्र एक मिट्टी की वस्तु नहीं है।

वह हमारी माँ मानवता की गोद है
उसकी गोद में ही
पल रहे हैं
संस्कार हमारे पूर्वजों के
और पलेगी आने वाले
हर बचपन की
अपनी ही पीढ़ियां।