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पूस के खेत की रात / दिनेश कुमार शुक्ल

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चला जा रहा था ऐरावत आसमान में
और समय के चलने की आवाज
साफ सुन सकते थे हम
गाढ़े अन्धकार में लिपटा
हुआ तीसरा पहर रात का
चला जा रहा था डग भरता

भीग रही थी रात
और चूँघट खोले मुस्कुरा रही थी

निपट पराजय की वेला में
दुख के अंगारों पर
लोहा दहक रहा था
तौल-तौल कर गिरते थे घन

गेहूँ-अरहर के खेतों में
नीलगाय पगुराती जाती
पड़ते खुर
छाती छिलती थी

फसल-तकाई की रातें थीं
वहीं मेड़ पर बनी मड़ैया में
गुदड़ी में लाल छुपा था
भूखा-थका किन्तु अपराजित
इधर तकाई उधर पढ़ाई
और छमाही इम्तिहान था
अच्छा हुआ गणित का पर्चा
अँग्रेजी में बुरा हाल था-
उधर पूस की सरसी के
कोमल सिवार में
उलझा हुआ चाँद पूनम का
डूब रहा था,
दूर कहीं कुछ कीट-पतंगों की
आभा टिमटिमा रही थी
सूखी गूलों में
पानी की याद अभी तक बसी हुई थी
पुरनम माटी...

सोमवती के बेटे की अटपट कविताएँ
कभी ओस से
कभी वनस्पतियों से
भाषा माँग रही थीं
भाषातीत रात
अब कुछ-कुछ भीग चली थी
जंगल में भय था
भय में भी सुन्दरता थी
पेड़ों पर मेड़ों पर
केवल सुन्दरता ही सुन्दरता थी

स्वप्न सदेह चल रहे थे जंगल में
जैसे आते हैं तस्कर
लोगों के प्राण छीन कर ले जाते हैं
पत्तों की चरमर-चरमर में
बोल रहे थे धीरे-धीरे
वे अपनी सन्ध्या भाषा में-
नयी व्यवस्था के अन्तर्गत
अब प्रतिबन्धित होगी खेती
हस्तशिल्प पशुपालन पर भी
रोक लगेगी
ज्यादातर बोलियाँ गैरकानूनी होंगी...

तब तक चौथा पहर रात का
भासमान था आसमान में
गो कि रात अब भी बाकी थी
गेहूँ-अरहर के खेतों में
ओस गिरी थी उसकी बूंदों में
कविता का स्वाद भरा था

फास्फोरस था या कि रेडियम
या आँखें थीं लाल हरी पीली चमकीली
ठहर गया था पानी पीते-पीते हिरना...
उसकी गन्ध दूर हिंसा के नथुनों को
गुदगुदा रही थी...

थी अश्रव्य चाल चीते की
किन्तु चाल थी
लुप्त हो चुके चीते कब के
तो फिर कौन चला आता था
कैसी मोहक कुटिल चाल थी...

धरा-उर्वरा
यह खेती की भूमि
सेज़ बनने वाली थी कुटिल काल की
कुटिल चाल थी...