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देकार्त के दोस्त / दिनेश कुमार शुक्ल

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देकार्त के दोस्त
‘ऊँ मणि पद्मे हुम्’
‘कोगितो एगों सुम्’
ख़त्म हुआ!
विचार-विरोधी समय का समय
अब ख़त्म हुआ!
क्योंकि
देकार्त के दोस्त पानी ने
सोचना शुरू कर दिया है
ताकि नदियों का होना बना रहे
होना पहाड़ों की बर्फ का
पाताल के सोतों का होना बना रहे
सोचना शुरू कर दिया है आँसुओं ने
कि आँखों में दृष्टि का होना बना रहे

और भी दूसरे दोस्त देकार्त के
विचार-संसार में कर चुके हैं प्रवेश
हवा-पहाड़-पेड़-पशु-पक्षी
चहल-पहल बढ़ी है चेतना के लोक में
अब तो निकल ही आयगी
कोई न कोई जुगत
प्रलय-पयोधि से पृथ्वी उबार ली जायगी
सब मिल कर सोचेंगे
तो बने रहेंगे सब
अकेले आदमी के बूते
कहाँ चल पाया संसार
देख तो लिया
आख़िर अकेला
और कितना सोच पाता आदमी
कि दुनिया-जहान का होना बना रहे

गा रहे हैं देकार्त के दोस्त
हवा-पहाड़-पेड़-पशु-पक्षी
अटपटी साँझी भाषा में समवेत
आदमी जल-तरंग पर
उनका साथ दे रहा है-

जो जानेगा सो जीवेगा
अमरित का प्याला पीवेगा
जो सबको अपना जानेगा
और अपने जैसा मानेगा
वो लड़ी प्रीत की पोवेगा
जो सोचेगा सो होवेगा
जो जानेगा सो जीवेगा
अमरित का प्याला पीवेगा!